यहोवा के साक्षी कौन हैं? (भाग 3 का 3): त्रुटि से भरी मूल अवधारणा

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विवरण: यहोवा के साक्षियों की मान्यताएं और इस्लाम की एक संक्षिप्त तुलना।

  • द्वारा Aisha Stacey (© 2012 IslamReligion.com)
  • पर प्रकाशित 04 Nov 2021
  • अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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यहोवा का साक्षी (JW's) एक ईसाई संप्रदाय है, जिसमें कई मान्यताएं शामिल हैं जो प्रमुख ईसाई संप्रदायों से अलग है। वे अपने शक्तिशाली इंजीलवाद, एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) तक उनकी व्यस्तता और बाइबल के अपने अनोखे अनुवाद के लिए जाने जाते हैं जिसे द न्यू वर्ल्ड ट्रांसलेशन ऑफ द होली स्क्रिप्चर्स कहा जाता है। हमारे अध्ययन के निष्कर्ष से जुड़े इस लेख में हम यहोवा के साक्षी के रूप में ज्ञात इस धर्म की कुछ ऐसी मान्यताओं पर एक नज़र डालेंगे जो इस्लाम के समान प्रतीत होते हैं।

यहोवा के साक्षियों का यह मानना है कि ईसा ईश्वर नहीं हैं। यह एक ऐसा कथन है जो ज़्यादातर ईसाइयों को क्रोधित करता है और कई लोगों ने इसके चलते यहोवा के साक्षियों को दिखावटी-ईसाई घोषित किया है। मुसलमान, जैसा कि हम जानते हैं, स्पष्ट रूप से मानते हैं कि ईसा ईश्वर नहीं हैं, इसलिए इस एक छोटे से कथन को पढ़ने से एक मुसलमान यह कह सकता है, "ओह, ये लोग तो हमारे जैसे ही हैं"। पर क्या वाकई? आइए हम ईसा की भूमिका के बारे में उनकी आस्थाओं पर गहराई से नज़र डालते हैं।

यहोवा के साक्षी ट्रिनिटी की मूर्तिपूजन का निंदा करते हैं और तदनुसार ईसा की ख़ुदाई को नकारते हैं। हालांकि उनका मानना है कि भले ही ईसा ईश्वर के पुत्र हैं, वह ईश्वर से छोटे हैं। इस प्रकार इस्लाम से समानता अचानक समाप्त हो जाती है। ईश्वर क़ुरआन के सबसे मशहूर आयतों में से एक में कहता है कि उसकी कोई संतान नहीं है!

कहो (मुहम्मद): “वह ईश्वर एक है। ईश्वर निरपेक्ष (और सर्वाधार) है। न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान। और कोई उसके समकक्ष नहीं।” (क़ुरआन 112)

ईश्वर के बारे में इस त्रुटि भरी बुनियादी समझ के अलावा, यहोवा के साक्षी अन्य अपमानजनक (ख़ासतौर से मुसलमानों के लिए) दावों पर भी विश्वास करते हैं। वे ईसा के मृत्यु का दावा करते हैं, या यहोवा के साक्षी यह मानते हैं कि उन्होंने मानवजाति को पाप और मृत्यु से बचाने के लिए "फिरौती" के रूप में अपना बलिदान दे दिया। उनका मानना है कि ईश्वर ने स्वर्ग में और पृथ्वी पर सारा कुछ मसीह के ज़रिए बनवाया, जो उनका "मास्टर कारीगर," ईश्वर का सेवक था।[1] अपने स्वयं के साहित्य में यहोवा के साक्षी ने ईसा को "उनकी (ईश्वर की) पहली रूह की रचना, मास्टर शिल्पकार, मानव-पूर्व ईसा " के रूप में संदर्भित किया है[2]। वे आगे कहते हैं कि ईश्वर द्वारा ईसा के पुनर्जीवन के बाद, वह एक फ़रिश्ते से भी ऊंचे स्तर पर "महान" बताए गए थे। इसका खंडन क़ुरआन में ईश्वर के अपने शब्दों में मिलता है।

“वह आकाशों और पृथ्वी का रचयिता है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है जबकि उसकी कोई पत्नी नहीं। और उसने हर चीज़ को पैदा किया है और वह हर चीज़ का जानने वाला है। यह है ईश्वर तुम्हारा पालनहार है। उसके अतिरिक्त कोई उपास्य नहीं। वही हर चीज़ का रचयिता है, अतः तुम उसी की उपासना करो। और वह हर चीज़ का भार धारक है।” (क़ुरआन 6:101-102)

यह विचार कि ईसा हमारी आत्माओं को बचाने या हमारे पापों को माफ़ करवाने के लिए फिरौती के रूप में अपनी जान दे दी थी, पूरी तरह से इस्लामी मान्यताओं के सामने एक सरासर बेवकूफी भरी अवधारणा है।

“ऐ किताब वालों (यहूदी व ईसाई) अपने दीन (धर्म) में अतिशयोक्ति न करो और ईश्वर के संबंध में कोई बात सत्य के अतिरिक्त न कहो। मरियम के बेटे ईसा तो मात्रा ईश्वर के एक रसूल (सन्देष्टा) और उसका एक कलिमा (वाक्य) हैं जिसको उसने मरियम की ओर भेजा और उसकी ओर से एक आत्मा हैं। अतः ईश्वर और उसके रसूलों (सन्देष्टाओं) पर ईमान लाओ और यह न कहो कि ईश्वर तीन हैं। बाज़ आ जाओ, यही तुम्हारे लिए बेहतर है। उपास्य तो मात्रा एक ईश्वर ही है। वह पवित्रा है कि उसके सन्तान हो। उसी का है जो कुछ आकाशों में है और जो कुछ धरती पर है और ईश्वर ही काम बनाने के लिए पर्याप्त है।” (क़ुरआन 4:171)

मूल पाप ने मनुष्यों को मृत्यु और पाप का उत्तराधिकारी बना दिया, यह धारणा इस्लाम की शिक्षाओं के भी उलट है। इस्लाम हमें सिखाता है कि मनुष्य बिना पाप के पैदा होता है और स्वाभाविक रूप से केवल ईश्वर (बिना किसी बिचौलियों के) की इबादत करने के लिए इच्छुक होता है। पापरहितता की इस स्थिति को बनाए रखने के लिए मानवजाति को ईश्वर के हुक्म का पालन करने और एक धर्मी जीवन जीने का प्रयास करने की आवश्यकता है। अगर कोई व्यक्ति पाप कर बैठता है, तो उसे बस सच्चे पश्चाताप की आवश्यकता होती है। जब कोई व्यक्ति पश्चाताप करता है, तो ईश्वर पाप को ऐसे मिटा देता है जैसे उसने कभी वह पाप किया ही नहीं था।

यहोवा के साक्षी मानते हैं कि मृत्यु के बाद कोई भी आत्मा नहीं रहती है और ईसा मरे हुए लोगों को फिर से जीवित करने के लिए लौटेगें, आत्मा और शरीर दोनों को पुनर्जीवित करेगें। न्याय धर्मी लोगों को पृथ्वी पर अनंत जीवन दिया जाएगा (जो तब स्वर्ग बन जाएगा)। जिन्हें अधर्मी घोषित किया जाएगा उन्हें कोई पीड़ा नहीं दी जाएगी, लेकिन उनकी ज़िंदगी का अंत वहीं हो जाएगा और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। इस्लाम इस बारे में असल में क्या कहता है?

इस्लाम के अनुसार, शव को दफनाने के बाद भी कब्र में ज़िंदगी जारी रहती है। एक ईमानदार इंसान की आत्मा, शरीर से आसानी से निकल जाती है, उन्हें एक स्वर्गीय और मीठे सुगंधित वस्त्र पहनाए जाते हैं और सात स्वर्गों से होकर ले जाया जाता है। अंत में आत्मा को कब्र में लौटा दिया जाता है, और उस व्यक्ति के लिए स्वर्ग का द्वार खोल दिए जाते हैं, और स्वर्ग की हवाएं उसकी ओर बहती हैं, और वह उसकी सुगंध को महसूस करता है। उसे स्वर्ग की खुशखबरी सुनाई जाती है और वह क़यामत के शुरू होने का इंतज़ार करते हैं। दूसरी ओर, विश्वासघाती इंसान की आत्मा को उसके शरीर से बहुत ही संघर्ष के साथ निकाला जाता है, लेकिन आखिर में शरीर में वापस चला जाता है। क़यामत शुरू होने तक व्यक्ति को कब्र में यातना दी जाती है।

“उस दिन वज़नदार (प्रभावी) केवल सत्य होगा। अतः जिनकी तौलें भारी होंगी, वही लोग सफल घोषित होंगे। और जिनकी तौलें हल्की होंगी वही लोग हैं जिन्होने अपने आप को घाटे में डाला, क्योंकि वह हमारे प्रतीकों के साथ अन्याय करते थे।” (क़ुरआन 7:8-9)

उनके श्रेय के लिए यहोवा के साक्षी उन हरकतों से अनदेखा करते हैं जो ईश्वर नापसंद करते हैं, जिसमें झूठे धर्मों से उत्पन्न होने वाले जन्मदिन और छुट्टियों का जश्न मनाना शामिल है। यहोवा के साक्षी अपना ख़ुद का जन्मदिन नहीं मनाते हैं, क्योंकि इसे रचयिता के बजाय व्यक्ति की महिमा माना जाता है। ये कथन निश्चित रूप से इस्लामी मान्यता के अनुरूप है। हालांकि, क्योंकि यहोवा के साक्षियों का ईश्वर एक है वाली मूल अवधारणा में त्रुटि है इस वजह से उनके नैतिक व्यवहार और मान्यताओं के मायने बहुत कम रह जाते हैं। ईश्वर हमें क़यामत के दिन पर सबसे असफल लोगों के बारे में स्पष्ट रूप से बताता है।

“क्या मैं तुमको बता दूं कि अपने कर्मों के अनुसार सबसे अधिक घाटे में कौन लोग हैं। वह लोग जिनके प्रयास सांसारिक जीवन में व्यर्थ हो गये और वह समझते रहे कि वह बहुत अच्छे कर्म कर रहें हैं। यही लोग हैं जिन्होंने अपने पालनहार की निशानियों को और उससे मिलने को झुठलाया। अतः उनका किया हुआ नष्ट हो गया।” (क़ुरआन 18:103-105)

इस तरह हमें पता चलता है कि भले ही पहली नज़र में यहोवा के साक्षियों के पास एक बनी-बनाई आस्था प्रणाली नज़र आती है जो इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप लगता है, मगर यह सच्चाई से बहुत दूर है। सावधानीपूर्वक विचार करने से उनके मूल सिद्धांतों में दोषों और गलतियों का पता चलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यहोवा के साक्षियों के धर्म में इस्लाम या फिर ईसाई धर्म के मुकाबले बहुत ही कम समानता मौजूद है। स्वर्ग और नर्क, ईश्वर एक है, ट्रिनिटी और ब्रह्मांड के निर्माण के उनके सिद्धांत मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह ज़्यादातर ईसाई संप्रदायों को भी स्वीकार्य नहीं हैं।



फुटनोट:

[1](http://www.beliefnet.com/Faiths/2001/06/What-Jehovahs-Witnesses-Believe.aspx)

[2] (http://www.watchtower.org/e/ti/article_05.htm)

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