यहोवा के साक्षी कौन हैं? (भाग 3 का 2): एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत)

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विवरण: यहोवा के साक्षी एक ऐसी घटना की भविष्यवाणी करते हैं जिसे ईश्वर ने केवल स्वयं को ज्ञात घोषित किया है।

  • द्वारा Aisha Stacey (© 2012 IslamReligion.com)
  • पर प्रकाशित 04 Nov 2021
  • अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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Jehovahs-Witnesses2.jpgयहोवा के साक्षी (JW) 200 से अधिक देशों में मौजूद अपने सदस्यों के साथ एक वैश्विक धर्म का दरजा रखते हैं। यह एक ईसाई संप्रदाय है, लेकिन कई प्रमुख ईसाई संप्रदाय यहोवा के साक्षियों की मान्यताओं पर कड़ी आपत्ति जताते हैं। ऑर्थोडॉक्स प्रेस्बिटेरियन चर्च के अनुसार, “यहोवा के साक्षी एक बनावटी-ईसाई धर्म को मानते हैं। इसका मतलब है कि ये लोग ईसाई होने का दिखावा करते हैं, पर असल में वे ईसाई नहीं होते हैं। उनकी शिक्षा एवं व्यवहार पवित्रशास्त्र के अनुरूप नहीं हैं।”[1]


भाग 1 में हमने यहोवा के साक्षियों के धर्म के इतिहास के बारे में थोड़ा बहुत ज्ञान हासिल किया और पाया कि वे तुलनात्मक रूप से एक नए धर्म का हिस्सा थे, जिसका गठन 1870 में हुआ था। साथ ही हमने उनकी मान्यताओं और एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) के सिद्धांतों के प्रति उनकी शिक्षा पर संक्षेप में उल्लेख भी किया था और अब भाग 2 में हम उस एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) की भविष्यवाणियों के बारे में गहराई से जानेंगे जो कि घटित नहीं हुई हैं।

एंड ऑफ़ डेज़ (क़यामत) का अध्ययन, जिसे अधिक सही ढंग से युगांतशास्त्र कहा जाता है, यहोवा के साक्षियों के विश्वास का केंद्र है। इसकी उत्पत्ति नेल्सन होरेशियो बारबोर, जो कि एक प्रभावशाली एडवेंटिस्ट लेखक और प्रकाशक थे और जो चार्ल्स टेज़ रसेल के साथ अपने करीबी संबंध और बाद में विरोध के लिए जाने जाते थे, उन्हीं के द्वारा समर्थित मान्यताओं से निकलता हुआ प्रतीत होता है। नीचे यहोवा के साक्षियों के मूल युगांतशास्त्रीय मान्यताओं का संक्षिप्त विवरण मौजूद है जैसा कि उनकी वेब साइट पर बताया गया है।

“नेल्सन एच. बारबोर से जुड़े दूसरे एडवेंटिस्टों ने 1873 में और बाद में 1874 में ईसा मसीह के प्रकट होने और उनके भव्य वापसी की उम्मीद की थी वे अन्य एडवेंटिस्ट समूहों की मान्यताओं से सहमत थे कि “अंत का समय" (जिसे “अंतिम दिन (क़यामत का दिन)” भी कहा जाता है) उसकी शुरुआत 1799 में हो गई थी 1874 की निराशा के तुरंत बाद, बारबोर ने इस विचारधारा को स्वीकार कर लिया कि ईसा मसीह दरअसल 1874 में ही पृथ्वी पर लौट आए थे, मगर अदृश्य रूप से वर्ष 1874 को मानव इतिहास के 6,000 वर्षों का अंत और ईसा मसीह द्वारा न्यायिक समय की शुरुआत माना जाता था चार्ल्स टेज़ रसेल और उनके समूह के लोग जिसे बाद में “बाइबल के विद्यार्थियों” के रूप में जाना गया, उन्होंने बारबोर के इन विचारों को स्वीकार किया[2]

"आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) 1914 में घटित होने वाली थी। 1925–1933 तक, वॉचटावर सोसाइटी ने 1914, 1915, 1918, 1920, और 1925 में आर्मगेडन के आने की अपेक्षाओं को लेकर विफलता हाथ लगने के बाद अपने विश्वासों को मौलिक रूप से बदल लिया। 1925 में, वॉचटावर सोसाइटी ने एक बड़े बदलाव का घोषणा किया, यह कि ईसा मसीह को 1878 के बजाय 1914 में स्वर्ग का राजा बनाकर पेश किया गया था। 1933 तक, स्पष्ट रूप से यही सीख दी जाती थी कि मसीह अदृश्य रूप से 1914 में ही लौट आए थे और "अंतिम दिन" भी शुरू हो गया था।"[3]

ये विचार मौजूदा दौर के यहोवा के साक्षियों के विचार से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते हैं और बड़ी ही हैरानी की बात है कि उन्हें अपनी मान्यताओं में हुए इन बड़े और महत्वपूर्ण बदलावों के बाद भी कोई समस्या नहीं है। यहोवा के साक्षियों की युगांतशास्त्र में 1914 का समय शायद सबसे महत्वपूर्ण तारीख है। यह रसेल द्वारा बताई आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) के आने की पहली अनुमानित तारीख थी[4], मगर जब ऐसा नहीं हो सका तो इसमें संशोधन किया गया कि “1914 में जीवित लोग आर्मगेडन के समय भी जीवित रहेंगे”; हालांकि 1975 आते-आते वे लोग वृद्ध नागरिक हो चुके थे।

“1960 और 1970 के शुरूआती दशकों में, कई साक्षियों को उनके साहित्य में मौजूद लेखों की मदद से प्रेरित किया जाता था और 1975 से पहले उनकी सभाओं में वक्ताओं द्वारा प्रोत्साहित करने के लिए इसी का उपयोग किया जाता था ताकि लोग इस बात पर विश्वास करें कि आर्मगेडन और ईसा मसीह के हज़ार साल का सहस्राब्दी शासन 1975 से शुरू होगा। हालांकि आर्मगेडन और 1975 में शुरू हुई ईसा मसीह की सहस्राब्दी के विचार को वॉच टावर सोसाइटी के द्वारा कभी भी पूरी तरह या स्पष्ट रूप से समर्थन नहीं दिया गया, मगर फिर भी संगठनों में मौजूद कई लेखन विभाग के लोग, साथ ही साथ संगठन के कई प्रमुख साक्षी, एल्डर्स और प्रिसाइडिंग ओवरसियरों ने भारी मत से यह सुझाव दिया कि ईसा मसीह का सहस्राब्दी शासनकाल पृथ्वी पर वर्ष 1975 तक शुरू हो जाएगा।”

1975 के आते-आते यहोवा के बहुत से साक्षियों ने अपने घर बेच दिए, अपनी नौकरी छोड़ दी, जल्दबाजी में अपनी बचत की गई कमाई को खर्च कर दिया या अपने ऊपर हजारों डॉलर का कर्ज जमा कर लिया। हालांकि, वर्ष 1975 उसी पर से बीत गया जैसे हर साल बीतता था। इस वर्ष भी किसी प्रकार की घटना न होने के बाद, बहुत से लोगों ने यहोवा के साक्षी संगठन को छोड़ दिया और अपने स्वयं के स्रोतों के अनुसार, संख्या के ठीक होने और फिर से बढ़ने से पहले इसे वर्ष 1979 होने घटने वाला बताया। साक्षियों ने आधिकारिक तौर पर कहा कि आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) तब आएगा जब वर्ष 1914 को गुज़ारने वाली पीढ़ी जीवित रहेगी। 1995 तक, 1914 के दौर में मौजूद सदस्य जो कि अब तक जीवित थे, उनकी तेजी से घटती आबादी को देखते हुए, यहोवा के साक्षियों को आधिकारिक तौर पर अपनी सबसे विशिष्ट अवधारणाओं में से एक को त्यागने पर मजबूर होना पड़ा।

वर्तमान में साक्षियों का तर्क है कि 1914 एक महत्वपूर्ण वर्ष है, जो “अंत के दिनों” यानि क़यामत के शुरुआत का प्रतीक है। लेकिन वे अब "अंत के दिनों (क़यामत)" के ख़त्म होने की कोई समयसीमा निर्दिष्ट नहीं करते हैं, बल्कि अब यह कहना पसंद करते हैं कि एक ऐसी पीढ़ी जो 1914 से जीवित है वह आर्मगेडन (अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली निर्णायक लड़ाई) को देखने वाली हो सकती है। ऐसा माना जाता है कि आर्मगेडन के दौर में परमेश्वर द्वारा इस दुनिया में मौजूद सभी सरकारों का ख़ात्मा कर दिया जाएगा, और आर्मगेडन के बाद, ईश्वर पृथ्वी के वासियों को शामिल करने के लिए अपने स्वर्गीय राज्य का विस्तार करेगा।[5]

यहोवा के साक्षियों का मानना ​​है कि मरे हुओं को धीरे-धीरे एक हजार साल तक चलने वाले “न्याय के दिन” यानि आख़ेरत के दिन पुनर्जीवित किया जाएगा और उस दिन वह न्याय पुनर्जागरण के बाद उनके कार्यों पर आधारित होगा, न कि पिछले कर्मों पर। हज़ार वर्षों के अंत में, एक आखरी परीक्षा लिया जाएगा जब पूर्ण मानवजाति को गुमराह करने के लिए शैतान को वापस लाया जाएगा और उस आखिरी परीक्षा का परिणाम पूरी तरह से परखे हुए, महिमायुक्त मानव जाति के लोग होंगे।[6]

“अंत के दिनों” की इस व्याख्या की तुलना इस्लाम से किस प्रकार की जाती है? सबसे महत्वपूर्ण और स्पष्ट अंतर यह है कि इस्लाम ऐसी किसी तारीख की भविष्यवाणी नहीं करता है कि क़यामत का दिन कब आएगा और न ही वह पुनरुत्थान के दिन की तारीख की भविष्यवाणी करता है, केवल ईश्वर ही जानता है कि यह कब होगा।

लोग आपसे क़यामत के बारे में पूछते हैं, कह दीजिए कि उसका ज्ञान तो मात्र ईश्वर के पास है'। (क़ुरआन 33:63)

निःसंदेह कियामत आने वाली है। मैं उसको छिपाये रखना चाहता हूं ताकि प्रत्येक व्यक्ति को उसके किये का बदला मिले। (क़ुरआन 20:15)

"कह दो कि ईश्वर के अतिरिक्त, आकाशों और धरती में कोई परोक्ष का ज्ञान नहीं रखता। और वह नहीं जानते कि वह कब उठाये जायेंगे।" (क़ुरआन 27:65)

एक और स्पष्ट अंतर अंत के दिन (क़यामत) की अवधारणा को लेकर है, जबकि ईसाई और कृत्रिम ईसाई अच्छाई और बुराई के बीच एक अंतिम लड़ाई में यकीन रखते हैं, जिसे आर्मगेडन के नाम से जाना जाता है, इस्लाम में ऐसी कोई बात नहीं है। इस्लाम सिखाता है कि यह वर्तमान दुनिया एक निश्चित शुरुआत के साथ बनाई गई थी और इसका एक निश्चित अंत होगा जो युगांतिक घटनाओं के निर्धारित समय होगा। इन घटनाओं में ईसा की वापसी शामिल है। ऐतिहासिक समय समाप्त हो जाएगा और उसके बाद सभी मानव जाति के लिए पुनरुत्थान और अंतिम न्याय का वक्त आएगा।

भाग 3 में हम अन्य मान्यताओं पर चर्चा करेंगे जो इस्लाम की मान्याताओं के समान प्रतीत होती हैं लेकिन मुसलमानों के द्वारा स्वीकार्य कोई बुनियादी अवधारणा नहीं है। हम इस बात पर भी मोटे तौर पर नज़र डालेंगे कि क्यों इनमें से कुछ मान्यताओं ने कई ईसाई संप्रदायों को यहोवा के साक्षियों के समूह को एक ईसाई संप्रदाय होने के दावे को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित किया है।



फुटनोट:

[1] (http://www.opc.org/qa.html?question_id=176)

[2] (http://www.watchtowerinformationservice.org/doctrine-changes/jehovahs-witnesses/#8p1)

[3] Ibid.

[4] अच्छाई और बुराई के बीच होने वाली आखरी निर्णायक लड़ाई जिसकी सूचना अधिकांश ईसाई संप्रदाय देते हैं।

[5]द वॉचटावर, विभिन्न संस्करण, मई 2005, मई 2006 और अगस्त 2006 के संस्करण सहित।

[6] Ibid.

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