इस्लाम धर्म को अपनाने के लाभ (भाग 3 का 2)
विवरण: आपको बिना देरी किए इस्लाम क़बूल क्यों कर लेना चाहिए।
- द्वारा Aisha Stacey (© 2011 IslamReligion.com)
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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दुनिया भर में कई लोग इस्लाम के सिद्धांतों को पढ़ने और अध्ययन करने में असीमित समय बिताते हैं; वे क़ुरआन के अनुवाद को पूरी तरह से समझते हैं और पैगंबर मुहम्मद के जीवन और उनके काल से प्रभावित होते हैं। बहुत से लोगों को इस्लाम की केवल एक झलक चाहिए होती है और वे तुरंत ही इस्लाम क़बूल कर लेते हैं। फिर भी बहुत से अन्य लोग सत्य को पहचानते हैं, लेकिन वे प्रतीक्षा करते हैं, और ज़्यादा प्रतीक्षा करते हैं और प्रतीक्षा करते रहते हैं, कभी-कभी वे अपनी आख़ेरत (परलोक का जीवन) को संकट में डालने की हद तक प्रतीक्षा करते हैं। इसलिए आज हम अपनी पिछली चर्चा जारी रखेंगे, कभी-कभार इस्लाम क़बूल करने के इतने स्पष्ट लाभ नहीं होते हैं।
"और जो व्यक्ति इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य दीन (धर्म) को चाहेगा तो वह उससे कदापि स्वीकार न किया जाएगा और वह परलोक में अभागों में से होगा।" (क़ुरआन 3:85)
5. इस्लाम क़बूल करना अपने विधाता के साथ आजीवन संबंध स्थापित करने का पहला कदम होता है।
मानव जाति में जन्मा हर एक सदस्य इस ज्ञान के साथ पैदा होता है कि ईश्वर एक है। पैगंबर मुहम्मद ने कहा कि हर बच्चा फ़ितरत के साथ[1], अपने ईश्वर की सही समझ के साथ पैदा होता है।[2] इस्लाम के अनुसार इंसान का यह एक प्राकृतिक स्वभाव होता है, स्वाभाविक रूप से यह जानना कि एक विधाता है और स्वाभाविक रूप से उसी की आराधनाकरना और उसे ही राज़ी करना है। हालांकि जो लोग ईश्वर को नहीं पहचानते या उनके साथ संबंध स्थापित नहीं करते हैं, वे मानव की अस्तित्व को लेकर उलझन में पड़े रहते हैं और कभी-कभी काफी परेशान हाल दिखते हैं। बहुत से लोगों के लिए, एक ईश्वर को अपने जीवन में स्वीकार करना और उसकी आराधना इस प्रकार से करना जो उसे (ईश्वर को) राज़ी करता हो, जीवन को एक नया अर्थ देता है।
"सुनो, ईश्वर की याद ही से दिलों को सन्तुष्टि प्राप्त होती है।" (क़ुरआन 13:28)
नमाज़ और दुआ जैसे कार्यों को करते ही, व्यक्ति यह महसूस करने लगता है कि ईश्वर अपने अनंत ज्ञान और प्रज्ञान के माध्यम से उसकी सोच से भी ज़्यादा करीब है। एक आस्था रखने वाला व्यक्ति, इस ज्ञान से अवगत होकर सुरक्षित हो जाता है कि ईश्वर, सर्वोपरि है, स्वर्ग से परे रहतें हैं, और इस तथ्य को जानकार उसे आराम मिलता है कि वह उनके सभी मामलों में उनके साथ है और कोई मुसलमान कभी अकेला नहीं होता।
“वह जानता है जो कुछ धरती के अंदर जाता हैं और जो कुछ उससे निकलता है और जो कुछ आकाश से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है, और वह तुम्हारे साथ है जहाँ भी तुम हो, और ईश्वर देखता है जो कुछ तुम करते हो।” (क़ुरआन 57:4)
6. इस्लाम क़बूल करने से व्यक्ति ईश्वर के रचना के प्रति उसकी कृपा और दयालुता को जान सकता है।
एक निर्बल मनुष्य होने के कारण हम अक्सर खुद को खोया हुआ और अकेला महसूस करते हैं। और इस सब के बाद ही हम ईश्वर को याद करते हैं और उनकी दया और क्षमा चाहते हैं। जब हम पूरी तरह से समर्पित होकर उनकी तलाश करते हैं, केवल तभी उनकी ओर से हमें शांति का आशीर्वाद प्राप्त होता है। उसके बाद हम उनकी दयालुता को पहचानने में सक्षम होते हैं और इसे अपने आस-पास के वातावरण में इसे ज़ाहिर होते हुए देखते हैं। हालांकि, ईश्वर की आराधना करने के लिए, हमें उन्हें जानना होगा। इस्लाम क़बूल करने से ज्ञान का द्वार खुल जाता है, जिसमें यह तथ्य भी शामिल है कि ईश्वर की माफ़ी का कोई सीमा नहीं है।
बहुत से लोग अपने जीवन में अतीत में किए कई पापों के बारे में सोचकर उलझन में या शर्मिंदा होते हैं। इस्लाम क़बूल करने के बाद वे सभी पाप पूरी तरह से धुल जाते हैं; ऐसा मान लें कि जैसे वह कभी हुआ ही न हो। एक नया मुसलमान, किसी नवजात शिशु के जैसे पवित्र होता है।
"अवज्ञाकारियों से कहो कि यदि वह मान जाएं तो जो कुछ हो चुका है उसे क्षमा कर दिया जाएगा। और यदि वह पुनः वही करेंगे तो हमारा हिसाब-किताब पूर्ववर्तियों के साथ हो चुका है।" (क़ुरआन 8:38)
यदि इस्लाम क़बूल करने के बाद कोई व्यक्ति आगे भी कोई पाप करता है, तो क्षमा का द्वार पूरी तरह से खुला हुआ है।
"ऐ ईमान वालों, ईश्वर के समक्ष सच्ची तौबा करो। आशा है कि तुम्हारा पालनहार तुम्हारे पाप क्षमा कर दे और तुमको ऐसे बाग़ों में प्रवेश दे जिसके नीचे नहरें बहती होंगीं…” (क़ुरआन 66:8)
7. इस्लाम क़बूल करना हमें सिखाता है कि आज़माइश और इम्तिहान मानव जीवन का हिस्सा है।
एक बार जब कोई व्यक्ति इस्लाम क़बूल कर लेता है तो वह यह समझने लगता है कि इस जीवन में आने वाली आज़माइश, पीड़ा और सफलता इस क्रूर और असंगठित ब्रह्मांड में सिर्फ संयोगवश नहीं हो रहे हैं। एक सच्चा आस्तिक व्यक्ति समझता है कि हमारा अस्तित्व एक सुव्यवस्थित संसार का हिस्सा है, और जीवन ठीक उसी प्रकार से चल रहा रहा है जैसा कि ईश्वर ने अपने अनंत ज्ञान के माध्यम से बताया है।
ईश्वर हमें बताता है कि हमारा इम्तिहान लिया जाएगा और वह हमें अपनी आज़माइशों और पीड़ाओं को धैर्यपूर्वक सहन करने की सलाह देता है। इस बात को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि कोई व्यक्ति ईश्वर के एक होने को न मान ले और इस्लाम धर्म को स्वीकार न कर लें। क्योंकि ईश्वर ने इस्लाम के माध्यम से हमें स्पष्ट दिशा-निर्देश प्रदान कर दिया है कि आज़माइश और पीड़ा का सामना करते समय हमें किस प्रकार का व्यवहार रखना चाहिए। अगर हम क़ुरआन और पैगंबर मुहम्मद के द्वारा बताए गए प्रामाणिक दिशानिर्देशों का पालन करते हैं, तो हम दुखों को आसानी से सहन कर सकते हैं और आभारी बन सकते हैं।
"और हम अवश्य तुमको परीक्षा में डालेंगे, कुछ डर और भूख़ से और सम्पत्ति और प्राणों और फलों की कमी से। और दृढ़ रहने वालों को शुभ-सूचना दे दो।" (क़ुरआन 2:155)
पैगंबर मुहम्मद ने कहा, "एक व्यक्ति को उसकी धार्मिक योग्यता के स्तर के अनुसार परखा जाएगा, और आस्था रखने वाले इंसान को तब तक आज़माइश में डाला जाता रहेगा जब तक कि वह किसी पाप का भागी बने बगैर इस संसार से विदा न हो जाए। "[3] एक मुसलमान यह बात निश्चित रूप से जानता है कि यह दुनिया, यह जीवन, एक क्षणिक स्थान से अधिक कुछ नहीं है, हमारे अनंत जीवन यानि कि धधकती आग वाली नरक या स्वर्ग के रास्ते का बस एक पड़ाव है। पाप का बोझ अपने सिर पर लिए बगैर रचयिता के सामने हाज़िर होना एक अद्भुत बात है, और निश्चित रूप से हम पर आने वाली आज़माइशों इसके सामने कुछ भी नहीं है।
अगले लेख में हम इस चर्चा को इस निष्कर्ष पर समाप्त करेंगे कि इस्लाम जीवन जीने का एक तरीका है। यह स्पष्ट रूप से अन्य मनुष्यों के प्रति हमारे अधिकारों, दायित्वों और ज़िम्मेदारियों और जानवरों और पर्यावरण के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी को दर्शाता है। इस्लाम के पास जीवन के छोटे और बड़े सभी सवालों के जवाब हैं।
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