नास्तिकता (2 का भाग 1): निर्विवाद को नकारना
विवरण: यद्यपि कोई व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व को नकारता हो, लेकिन अपने हृदय की गहराइयों से यह एक ऐसा सत्य है जिसे वो नकार नहीं सकता।
- द्वारा Laurence B. Brown, MD
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 31 Jan 2024
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""जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी (दुःखद घटना) है ईश्वर को खोना और उसे न खोना है।"
--एफ.डब्ल्यू. नॉरवुड
नास्तिक यह दावा करते हैं कि वे ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, लेकिन कुछ ईसाइयों और सभी मुसलमानों का मानना है कि एक स्तर पर पक्का नास्तिक भी ईश्वर को मानता है। ईश्वर के प्रति स्वभाविक लेकिन उपेक्षित जागरूकता आमतौर पर नास्तिकों में तब सामने आती है जब वो गंभीर संकट में हो, जैसा कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय उल्लेखित हुआ था "मुसीबत में कोई भी नास्तिक नहीं होता।"[1]
निर्विवाद रूप से ऐसे समय होते हैं जब सभी मानवजाति मानवीय कमजोरी की वास्तविकता और भाग्य पर नियंत्रण की कमी को पहचानती है - चाहे वो एक लंबी बीमारी के दर्दनाक दिनों के दौरान हो, एक हिंसक और अपमानजनक लूट होने से पहले का समय हो, या एक कार दुर्घटना होने से बिलकुल पहले का समय हो। ऐसी परिस्थितियों में एक व्यक्ति सृष्टिकर्ता के अलावा किससे मदद मांगता है? हताशा के ऐसे क्षण धार्मिक विद्वान से लेकर पक्के नास्तिक तक, हर व्यक्ति को याद दिलाते हैं कि एक वास्तविकता है जिसपर मानवजाति निर्भर है। ये वास्तविकता ज्ञान, शक्ति, इच्छा, ऐश्वर्य और महिमा से कहीं अधिक बड़ी है।
संकट के ऐसे क्षणों में जब सभी मानवीय प्रयास विफल हो जाते हैं और भौतिक अस्तित्व की कोई भी चीज़ राहत नहीं देती या बचाव नहीं करती, एक व्यक्ति सहज रूप से और किसको पुकारेगा? मुसीबत के ऐसे क्षणों में ईश्वर से कितनी प्रार्थनाएं की जाती हैं जिसके बदले में आजीवन निष्ठा के वादे किये जाते हैं? लेकिन इनमें से कितने वादे पुरे होते हैं?
निसंदेह सबसे बड़ा कष्ट का दिन न्याय का दिन होगा, और उस दिन वह व्यक्ति कितना दुर्भाग्यशाली होगा जो पहली बार ईश्वर के अस्तित्व को जानेगा। अंग्रेजी कवि, एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग ने 'द क्राई ऑफ द ह्यूमन' में मनुष्य के व्यथित अपील की विडंबना की बात की है:
"और होंठ कहेंगे," ईश्वर दया करें,"
जिसने कभी नहीं कहा, "ईश्वर की स्तुति करें।"
चिंतापूर्ण नास्तिक, संशय से भरा हुआ लेकिन ईश्वर के अस्तित्व और न्याय के दिन की संभावना से भयभीत, इस तरह से 'संदेहवादी प्रार्थना' करेगा:
"हे प्रभु - यदि कोई प्रभु है,
मेरी आत्मा को बचा लो - अगर मुझ में आत्मा है।"[2]
जिस व्यक्ति को संदेह है और विश्वास नहीं करता है, वो ऐसी प्रार्थना कैसे कर सकता है? क्या नास्तिकों को अविश्वास पर रहना चाहिए, वे पहले से बदतर नहीं होंगे; क्या विश्वास ईमानदार आवेदन का साथ होना चाहिए, थॉमस जेफरसन कहते है:
"यदि आपको ईश्वर पर विश्वास करने का कारण मिल जाता है, यह मानते हैं कि वह आपके सारे कार्य देख रहा है, और यह कि वह आपको पसंद करता है, ये आपको एक अतिरिक्ति प्रोत्साहन देंगे; अगर भविष्य में ऐसा है, तो उसमें एक खुशहाल जीवन जीने की आशा उसको पाने के लिए आपकी भूख को बढ़ाती है…”[3]
यदि कोई व्यक्ति ईश्वर की रचना में उसके होने के प्रमाण को नहीं देखता है, तो उन्हें इसके बारे में एक बार और सोंचने का सुझाव दिया जा सकता है। जैसा कि फ्रांसिस बेकन ने टिप्पणी करी थी, "मैं दिव्य चरित्र और तालमुद, और अलकोरान (यानी क़ुरआन) की सभी पौराणिक कथाओं पर विश्वास करने के बजाय यह मानता था कि यह बिना दिमाग की सार्वभौमिक रचना है।"[4] उसने आगे टिप्पणी करी, "ईश्वर ने नास्तिकों को विश्वास दिलाने के लिए कभी चमत्कार नहीं किया, क्योंकि उनके साधारण कार्य ही विश्वास दिलाते हैं।"[5] सोंचने की बात यह है कि ईश्वर के लिए उसकी सबसे छोटी रचना भी हमारे लिए चमत्कार है। एक छोटे जानवर मकड़ी का उदाहरण लें। क्या वास्तव में कोई विश्वास कर सकता है कि इस तरह के एक असाधारण जीव का विकास प्रिमोरिदल सूप (आदिम महासागरों में कार्बनिक यौगिकों से भरपूर एक घोल) से हुआ है? इन छोटे जीवों में से सिर्फ एक सात अलग तरह के रेशम बना सकता है, कुछ प्रकाश की तरंगदैर्ध्य जितने पतले लेकिन स्टील से अधिक मजबूत। रेशम का उपयोग इलास्टिक, चिपचिपे धागे, बिना चिपकने वाले ड्रैग-लाइन्स और फ्रेम के धागे, शिकार को लपेटने के रेशम, अंडे की थैली बनाने आदि के लिए होते हैं। मकड़ी न केवल अपनी व्यक्तिगत पसंद के सात तरह के रेशम बना सकती है, बल्कि अपने घटक तत्वों से फिर से अवशोषित कर सकती है, तोड़ सकती है और फिर से बना सकती है। और यह मकड़ी के चमत्कार का केवल एक छोटा सा पहलू है।
और फिर भी मानवजाति खुद को अहंकार की ऊंचाइयों तक ले जाती है। एक पल का विचार मानव हृदय को विनम्रता की ओर ले जाना चाहिए। जब कोई व्यक्ति एक इमारत को देखता है तो इसके बनाने वाले के बारे में सोचता है, एक मूर्ति को देखता है तो तुरंत ही एक कलाकार के बारे में सोचता है। लेकिन परमाणु कण, भौतिकी की जटिलता और संतुलन से लेकर अंतरिक्ष की अज्ञात विशालता तक, सृजन की सुरुचिपूर्ण पेचीदगियों को देख के एक व्यक्ति क्या कल्पना करता है ... कुछ भी नहीं? समकालिक जटिलताओं से घिरे हुए हम लोग मच्छर एक का पंख भी नहीं बना सकते। और फिर भी पूरी दुनिया और सारा ब्रह्मांड कभी-कभी होने वाले दुर्घटनाओं के साथ पुरे सामंजस्य में मौजूद है जिसने ब्रह्मांडीय अराजकता को संतुलित कर रखा है? कुछ लोग संयोग समझते हैं, और अन्य सृजन।
नास्तिकता (2 का भाग 2): एक सवाल जिसे समझा जाए
विवरण: ईश्वर के कुछ कार्यों को न समझ पाना उसके अस्तित्व को नकारने का कोई कारण नहीं है।
- द्वारा Laurence B. Brown, MD
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
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जीवन के कथित अन्याय को लेकर, अधिकांश नास्तिक तर्क करते हैं और सर्व-प्रेमी ईश्वर की अनुकूलता को चुनौती देते हैं। एक धार्मिक, ऐसी चुनौतियों की पहचान इस तरह करते हैं की वो एक बुद्धि के अहंकार को दर्शाता है, यह धारणा होने के नाते कि हम मानव जाति के रूप में स्वयं सृजन का एक तत्व हैं,क्या हम उस ईश्वर से बेहतर जानते हैं कि उनकी रचना को क्या करना चाहिए।
बहुत से लोग इस जीवन के कुछ पहलुओं को समझ नहीं पाते, इसका मतलब यह नहीं की आप ईश्वर पर विश्वास न करो। मनुष्य का कर्तव्य ईश्वर के गुणों या उपस्थिति पर सवाल उठाना या उसका इनकार करना, या बेहतर काम करने में सक्षम होने पर अहंकार करना नहीं है, बल्कि इस जीवन में मानव की स्थिति को स्वीकार करना और जो है उसी में बेहतर करना है। समझने के लिए, यदि एक व्यक्ति अपने बॉस के काम को पसंद नहीं करता है और वह जो निर्णय लेता है उसे समझ नहीं पता है, इसका मतलब यह नहीं की उसके बॉस का अस्तित्व नही है। बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य वेतन और पदोन्नति के लिए नौकरी के सभी कार्यो को पूरा करना है। इसी तरह, ईश्वर के आदेशों को न समझ पाना या अस्वीकार करने का मतलब यह नहीं है की ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। बल्कि मानव जाति को विनम्रता के साथ यह समझना चाहिए कि, दफ़तर का मालिक हो सकता है वो गलत हो, लेकिन ईश्वर पूर्ण है, हमेशा सही है और कभी गलत नहीं हो सकता। मानवजाति को स्वेच्छा से ईश्वर के सामने झुकना चाहिए और यह स्वीकार करना चाहिए कि उसकी सृष्टि को न समझ पाना हमारी गलती है उसकी नहीं। बल्कि वह सृष्टि का स्वामी है और हम नहीं, वह सब कुछ जानता है और हम नहीं, वह अपने संपूर्ण गुणों के अनुसार सभी चीजें करता है, और हम उसके अधीन हैं जो अपना जीवन जी रहे हैं।
भ्रमित और संवेदनशील लोग जो कठिन और अक्सर दर्दनाक जीवन की वजह से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करते हैं, उन्हें सहानुभूति और स्पष्टीकरण की जरुरत है। यदि कोई व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार करता है कि ईश्वर जानता है कि वह क्या कर रहा है और हम नहीं जानते, उसे इस समझ के साथ सहज होना चाहिए कि हो सकता है कि गहराई में चीजें वैसी न हों जैसी वे पहली बार दिखती हैं। शायद दुनिया के सबसे दुखी लोग अप्रत्याशित कारणों से अपने जीवन के लायक हैं, और शायद परलोक में कभी न खत्म होने वाले सुख के लिए वह इस दुनिया में कुछ समय का दुख झेलते हैं। ऐसा न हो कि कोई व्यक्ति भूल जाए, ईश्वर ने अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना (अर्थात पैगंबरों) को निश्चितता, मार्गदर्शन और रहस्योद्घाटन का सबसे बड़ा सांसारिक उपहार दिया; हालांकि उन्हें संसार में बहुत से कष्ट उठाने पड़े। वास्तव में, अधिकांश लोगों की परीक्षाएं और मुश्किलें पैगंबरो की तुलना में काफी कम है। हालांकि बहुत से लोग बुरी तरह से पीड़ित हैं, उनके लिए यह उम्मीद की बात है कि ईश्वर के पसंदीदा लोग यानि पैगंबर, परलोक के सुखों के बदले इस दुनिया के सुखों से वंचित थे। एक व्यक्ति यह उम्मीद कर सकता है कि इस जीवन में वह जिन मुश्किलों का सामना कर रहा है उसे इसके बदले इनाम मिलेगा यदि वह सच्चे विश्वास पर दृढ़ रहेगा।
इसी तरह, उस व्यक्ति को दोष नहीं दिया जा सकता जो सोचता है, अविश्वासी अत्याचारियों और उत्पीड़कों को इस दुनिया के सभी सुख सुविधाएं मिल सकता है, लेकिन परलोक में कुछ भी नहीं। नरक के कुछ ज्ञात कैदियों का ख्याल आता है। उदाहरण के लिए, फिरौन ने इस हद तक शानदार भव्यता का जीवन जिया कि उसने खुद को सर्वोच्च ईश्वर घोषित कर दिया था। अक्सर अपनी राय बदलते रहते है। बहर हाल, अपने पल भर की सोच एक व्यक्ति को कुछ हद तक असंतुष्ट कर सकता है, आलीशान कालीन की यादें, बढ़िया भोजन और सुगंधित दासियां आकर्षण खो देता है जब विचार, जल्द-बाजी में लिया जाता है।
अधिकांश लोगो का यह अनुभव है की उनका एक अच्छा दिन की समाप्ति बुरे मनोदिशा से होता है, घटनाओं के समापन पर किसी अप्रिय घटना हो जाना इसका कारण बन जाता है। बढ़िया भोजन को कोई महत्व नहीं देता जो तलाक में समाप्त होता है, प्यार को महत्व नहीं देता जो एड्स से पुरस्कृत है, या एक शराब की रात जिसकी वजह से क्रूर लूटपाट या कार (गाड़ी) की दुर्घटना होती है। ये सब कितना अच्छा हो सकता था? इसी तरह, इस जीवन में आनंद स्थायी नहीं है, कोई फर्क नहीं पड़ता कि उत्साह कितना भी हो या अवधि कितनी ही लंबी हो, 100% पूरी तरह शरीर के जल जाने को स्मृति से तुरंत मिटा नहीं सकते। एक हाथ का एक हिस्सा इंसान के शरीर के कुल क्षेत्र के 1% होता है, और जब रसोई में उंगली का एक हिस्सा जो शरीर का एक हजारवां हिस्सा है जल जाता है तो ऐसा कौन है जो जलने की उस दर्दनाक गर्मी के दौरान हर छोटी-बड़ी चीज़, सब कुछ नहीं भूल जाता? मनुष्य पूरे शरीर के जलने की पीड़ा की कल्पना भी नहीं कर सकता, खासकर तब जब कोई राहत नहीं है, बस जलते रहना है। और कुछ लोग जो जल चुकें है वो इससे सहमत हैं। पूरा जलने का दर्द न केवल मानव कल्पना की सीमाओं से परे है, बल्कि इस दर्द को बता पाना भी मुश्किल है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की दहशत को न तो सही से बताया जा सकता है और न ही उन लोगों द्वारा पूरी तरह से समझा जा सकता है जो इस से बच गए हैं। निश्चित रूप से एक लंबी, शाश्वत, पुरे शरीर को जलाने वाली आग किसी भी सुखद यादों को मिटा सकती है, इस से यह निष्कर्ष निकलता है कि
"...इस दुनिया का जीवन परलोक के जीवन की तुलना में एक थोड़े समय का आनंद है।" (क़ुरआन 13:26)
वर्तमान परिशिष्ट[1] के संबंध में, मार्गदर्शन की दो चीज़ें विचार करने योग्य हैं, पहला यह कि सभी लोगों को सृष्टिकर्ता के होने का पता है। मनुष्य इस संसार की सुख-सुविधाओं की तलाश में ऊपरी तौर पर इसे भूल चुका है, लेकिन अंदर ही अंदर वह सत्य को जनता है। इसके अलावा, ईश्वर जानता है कि हम जानते हैं, और वह अकेले ही हमारे उसके प्रति व्यक्तिगत विद्रोह/या उसके प्रति समर्पण के स्तर को जनता है।
आध्यात्मिक जागरूकता की दूसरी चीज़ बस यह समझना है कि शायद ही कोई चीज है जो मुफ्त मिलती है। शायद ही कभी किसी को बिना कुछ किये कुछ मिलता है। क्या एक आदमी को ऐसे बॉस के लिए काम करना चाहिए जिसे न तो वह समझता है और न ही उससे सहमत है, लेकिन अंत में वेतन के लिए उसे काम करना ही पड़ता है। कोई व्यक्ति काम पर सिर्फ हाजिरी देने जाए और कुछ भी न करे तो वह सिर्फ इसके आधार पर वेतन की उम्मीद नहीं कर सकता। इसी प्रकार, यदि मनुष्य ईश्वर से उपहार पाना चाहता है तो उसके लिए मनुष्य को कार्य करना पड़ेगा और उसकी आराधना करनी पड़ेगी। आखिरकार, यह केवल जीवन का उद्देश्य ही नहीं बल्कि हमारा काम भी है। इस मामले में, मुसलमानों का दावा है कि पवित्र क़ुरआन में ईश्वर ने मनुष्य और जिन्न दोनों के कार्य का विवरण दिया है:
"और मैंने जिन्नों और इंसानों को सिर्फ अपनी आराधना के लिए पैदा किया है।" (क़ुरआन 51:56)
बहुत से लोग जीवन के उद्देश्य पर सवाल उठाते हैं, लेकिन कई धर्मों के विश्वास करने वाले वही मानते हैं जैसा ऊपर बताया गया है - मानवजाति का जन्म सिर्फ ईश्वर की सेवा और आराधना करने के लिए हुआ है। दुनिया के सभी जीव इस कर्तव्य को पूरा करने में एक दूसरे का सहयोग या उसकी परीक्षा लेने के लिए हैं। इस दुनिया के काम के विपरीत, एक व्यक्ति ईश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को टाल नहीं सकता और इसके लिए उसे अतिरिक्त समय भी नहीं मिल सकता। हालांकि, जीवन के इस आजमाइश के समय के बाद, हिसाब देने का समय होगा और यह निश्चित ही अपने हिसाब को 'लाल घेरे' में देखने का अच्छा समय नहीं होगा।
फ्रांसिस बेकन ने इस विषय को एक अद्भुत समापन दिया है, जिसमें वो कहते हैं, "जो ईश्वर को नहीं मानते, वो मनुष्य के बड़प्पन को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि निस्सन्देह मनुष्य अपने शरीर के अनुसार पशुओं के समान है; और यदि वह अपने अध्यात्म से ईश्वर का पसंदीदा नहीं है, तो वह एक बुरा और नीच प्राणी है।"[2] क्या किसी व्यक्ति को यह विश्वास करना चाहिए कि कुछ मिलियन वर्षों के बाद स्टेनली मिलर और हेरोल्ड उरे के प्रीमॉर्डिअल बुल्लबाइसे (विभिन्न प्रकार की मछलियों का सूप) के झाग से बारबेक्यू के योग्य कुछ निकलेगा, मानवजाति को फिर भी उसका हिसाब देना होगा जो हम सभी अपने भीतर महसूस करते हैं - आत्मा या प्राण। ये हर मनुष्य के अंदर है, और यह आध्यात्मिक आधार है जो मनुष्य को पशु से अलग करता है।
जो लोग प्रत्यक्ष रूप से न दिखने वाली चीज़ पर उसके होने का संदेह करते हैं, इसकी अधिक संभावना है कि वे खुद को कम लोगो के साथ पाएंगे। इसके बाद अब चर्चा का विषय सत्य, ज्ञान और प्रमाण की प्रकृति है, जो तार्किक रूप से अगले खंड में शुरू होगा जिसे नास्तिकता कहते हैं।
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