मरियम का पुत्र यीशु (5 का भाग 3): शिष्य
विवरण: यीशु के एक और चमत्कार का वर्णन किया गया है। खाने से भरी मेज के चमत्कार का असली महत्व।
- द्वारा Aisha Stacey (© 2008 IslamReligion.com)
- पर प्रकाशित 04 Nov 2021
- अंतिम बार संशोधित 04 Nov 2021
- मुद्रित: 0
- देखा गया: 8,730 (दैनिक औसत: 8)
- द्वारा रेटेड: 0
- ईमेल किया गया: 0
- पर टिप्पणी की है: 0
क़ुरआन के अध्याय 5 का नाम अल-माइदा (या भोजन की मेज) है। यह क़ुरआन के तीन अध्यायों में से एक है जो यीशु और उनकी मां मरियम के जीवन के बारे में विस्तार से बताता है। अन्य अध्याय 3 अल-इमरान (इमरान का परिवार) और अध्याय 19 मरियम (मैरी) हैं। मुसलमान यीशु से प्यार करते हैं और उसकी माँ का सम्मान करते हैं, लेकिन वे उनकी पूजा नहीं करते हैं। क़ुरआन, जिसे मुसलमान ईश्वर का प्रत्यक्ष वचन मानते हैं, यीशु और उनकी माँ मरियम और वास्तव में उनके पूरे परिवार - इमरान के परिवार को बहुत उच्च सम्मान में रखते हैं।
हम जानते हैं कि यीशु कई वर्षों तक अपने लोगों (इस्राइलियों) के बीच रहे, और वह लोगो को एक सच्चे ईश्वर की आराधना करने के लिए बोलते रहे और ईश्वर की अनुमति से चमत्कार करते रहे। उनके आस-पास के अधिकांश लोगों ने उनके बुलावे को अस्वीकार कर दिया और उनका संदेश नहीं सुना। हालांकि, यीशु ने अपने आस पास साथियों का एक समूह इकट्ठा किया जिसे अरबी में अल हवारिये (यीशु के शिष्य) कहते हैं।
क़ुरआन में ईश्वर ने कहा है:
"जब मैंने तेरे ह़वारियों के दिलों में ये बात डाल दी कि मुझपर तथा मेरे दूत (ईसा) पर विश्वास करो, तो सबने कहा कि हम विश्वास करते हैं और तू साक्षी रह कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।" (क़ुरआन 5:111)
शिष्यों ने खुद को मुस्लिम बताया; यह कैसे हो सकता है क्योंकि इस्लाम धर्म अगले 600 वर्षों तक नहीं आया था? ईश्वर ने "मुस्लिम" के सामान्य अर्थ का जिक्र किया होगा। एक मुस्लिम वह है जो सिर्फ एक ईश्वर और उसके आदेशों के प्रति समर्पित होता है, और वह भी जिसकी निष्ठा और वफादारी ईश्वर और विश्वासियों पर है। मुस्लिम और इस्लाम शब्द एक ही अरबी मूल - सा ला मा - से आया है और ऐसा इसलिए है क्योंकि शांति और सुरक्षा (सलाम) ईश्वर के प्रति समर्पण में निहित है। इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि ईश्वर के सभी पैगंबर और उनके अनुयायी मुसलमान थे।
भोजन से भरी हुई मेज
यीशु के सेवकों ने उनसे कहा:
"हे मरयम के पुत्र ईसा! क्या तेरा पालनहार ये कर सकता है कि हमपर आकाश से थाल उतार दे?” (क़ुरआन 5:112)
क्या वे यीशु से चमत्कार करने के लिए कह रहे थे? क्या यीशु के सेवक जिन्होंने उन्हें खुद को मुस्लिम कहा था, ईश्वर की इच्छा पर चमत्कार प्रदान करने की क्षमता के बारे में अनिश्चित महसूस करते थे? यह असंभव है, क्योंकि यह अविश्वास का कार्य है। यीशु के चेले यह नहीं पूछ रहे थे कि क्या यह संभव है, बल्कि यह कि क्या यीशु उस विशिष्ट समय पर उन्हें भोजन उपलब्ध कराने के लिए ईश्वर को बोलेंगे। हालांकि, यीशु ने अन्यथा सोचा होगा, क्योंकि उन्होंने उत्तर दिया:
"तुम ईश्वर से डरो, यदि तुम वास्तव में विश्वास करते हो।" (क़ुरआन 5:112)
जब उन्होंने यीशु की प्रतिक्रिया देखी, तो उनके शिष्यों ने उनके शब्दों को समझाने की कोशिश की। शुरू में उन्होंने कहा, "हम ईश्वर का भोजन खाना चाहते हैं।"
वे शायद बहुत भूखे रहे होंगे और चाहते थे कि ईश्वर उनकी आवश्यकता को पूरा करे। ईश्वर से हमें जीविका प्रदान करने के लिए कहना स्वीकार्य है, क्योंकि ईश्वर प्रदाता है, जहां से सब भोजन आता है। फिर शिष्यों ने कहा, “और हमारे मन को तृप्त करने के लिये।”
उनका मतलब था कि अगर वे अपनी आंखों से चमत्कार देखते हैं तो उनका विश्वास और भी मजबूत हो जाएगा, और इसकी पुष्टि उनके समापन कथन से होती है। "और हम यह जान लें कि आपने हम से सच कहा है, और हम स्वयं इसके साक्षी बनना चाहते हैं।"
यद्यपि अंत में उल्लेख किया गया, सत्य का साक्षी होना और चमत्कारों को देखना जो इसके सहायक प्रमाण हैं, उनके अनुरोध के लिए सबसे महत्वपूर्ण औचित्य थे। उनके शिष्य, पैगंबर यीशु से ईश्वर की अनुमति से यह चमत्कार करने के लिए कह रहे थे ताकि वे सभी मानवजाति के सामने गवाह बन सकें। उनके शिष्य, यीशु के संदेश को उन चमत्कारों की घोषणा करके फैलाना चाहते थे, जिन्हें उन्होंने अपनी आंखो से देखा था।
"उन्होंने कहाः हम चाहते हैं कि उसमें से खायें और हमारे दिलों को संतोष हो जाये तथा हमें विश्वास हो जाये कि तूने हमें जो कुछ बताया है वह सच है और हम उसके साक्षियों में से हो जायेँ। मरयम के पुत्र ईसा ने प्रार्थना कीः हे ईश्वर, हमारे पालनहार! हमपर आकाश से एक थाल उतार दे, जो हमारे तथा हमारे पश्चात् के लोगों के लिए उत्सव (का दिन) बन जाये तथा तेरी ओर से एक निशानी। तथा हमें जीविका प्रदान कर, तू उत्तम जीविका प्रदाता है।" (क़ुरआन 5:113-114)
यीशु ने चमत्कार के लिए कहा। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की, कि भोजन से भरी एक मेज नीचे भेज दी जाए। यीशु ने यह भी कहा कि यह उन सभी के लिए हो और यह एक त्योहार जैसा हो। क़ुरआन द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला अरबी शब्द ईद है, जिसका अर्थ है एक त्योहार या उत्सव जो फिर से आता है। यीशु चाहते थे कि उनके शिष्य और उनके बाद आने वाले लोग ईश्वर की आशीषों को याद रखें और आभारी रहें।
हमें पैगंबरों और अन्य धर्मी ईमानवालों द्वारा की गई प्रार्थनाओं से बहुत कुछ सीखना है। यीशु की याचना केवल भोजन से भरी एक मेज के लिए नहीं थी, बल्कि ईश्वर के लिए थी कि वह उन्हें भोजन प्रदान करे। उन्होंने इसे व्यापक बना दिया क्योंकि भोजन सर्वश्रेष्ठ पालनहार द्वारा प्रदान किए गए जीविका का एक छोटा सा हिस्सा है। ईश्वर की ओर से जीवन के लिए सभी आवश्यक आवश्यकताओं को शामिल किया गया है, जिसमें भोजन, आश्रय और ज्ञान शामिल है, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं है। ईश्वर ने उत्तर दिया:
"मैं तुमपर उसे उतारने वाला हूं, फिर उसके पश्चात् भी जो अविश्वास करेगा, तो मैं निश्चय उसे दण्ड दूंगा, ऐसा दण्ड कि संसार वासियों में से किसी को, वैसी दण्ड नहीं दूंगा।" (क़ुरआन 5:115)
ज्ञान जिम्मेदारी के बराबर है
ईश्वर की प्रतिक्रिया इतनी निरपेक्ष होने का कारण यह है कि यदि कोई ईश्वर से संकेत या चमत्कार प्रदान किए जाने के बाद अविश्वास करता है, तो यह चमत्कार देखे बिना अविश्वास करने से भी बदतर है। आप सवाल कर सकते हैं कि क्यों। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक बार किसी ने चमत्कार को देख लिया है, तो उसे ईश्वर की सर्वशक्तिमानता का प्रत्यक्ष ज्ञान और समझ हो जाता है। एक व्यक्ति के पास जितना अधिक ज्ञान होता है, ईश्वर के प्रति उसकी उतनी ही अधिक जिम्मेदारी होती है। जब आप संकेतों को देखते हैं, तो ईश्वर के संदेश पर विश्वास करने और उसे फैलाने का दायित्व अधिक हो जाता है। ईश्वर यीशु के शिष्यों को भोजन से भरी हुई इस मेज को प्राप्त करने की आज्ञा दे रहे थे कि वे उस महान जिम्मेदारी से अवगत हों, जो उन्होंने अपने ऊपर ले ली थी।
मेज का दिन यीशु के शिष्यों और अनुयायियों के लिए एक दावत का दिन और उत्सव बन गया, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, चमत्कार का वास्तविक अर्थ और सार खो गया। अंततः यीशु को एक देवता के रूप में पूजा जाने लगा। पुनरुत्थान के दिन, जब सारी मानवजाति ईश्वर के सामने खड़ी होगी, शिष्यों पर यीशु के सच्चे संदेश को जानने की बड़ी जिम्मेदारी होगी। ईश्वर सीधे यीशु से बात करेगा और कहेगा:
"हे मरयम के पुत्र ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि ईश्वर को छोड़कर मुझे तथा मेरी माता को पूज्य (आराध्य) बना लो? यीशु कहेंगे: तू पवित्र है, मुझसे ये कैसे हो सकता है कि ऐसी बात कहूं, जिसका मुझे कोई अधिकार नहीं? यदि मैंने कहा होगा, तो तुझे अवश्य उसका ज्ञान हुआ होगा। तू मेरे मन की बात जानता है और मैं तेरे मन की बात नहीं जानता। वास्तव में, तू ही परोक्ष (ग़ैब) का अति ज्ञानी है। मैंने केवल उनसे वही कहा था, जिसका तूने आदेश दिया था कि ईश्वर की पूजा करो, जो मेरा पालनहार तथा तुम सभी का पालनहार है।" (क़ुरआन 5:116-117)
हम में से जिन लोगों को यीशु के इस सच्चे संदेश का आशीर्वाद मिला है, वही संदेश जो अंतिम पैगंबर मुहम्मद सहित सभी पैगंबरो द्वारा फैलाया गया है, उन पर पुनरुत्थान के दिन बड़ी जिम्मेदारी होगी।
टिप्पणी करें